Begum Rokeya's Sultana's Dream | ख़ाब -ए-सुल्ताना | Part II

 

Sultana and Sister Sara. Text by Begum Rokheya Sakhawat Hossain and illustrations by Durga Bai for ‘Sultana's Dream.’ Original Edition ©️Tara Books Pvt Ltd, Chennai, India


Part I - Begum Rokeya's Sultana's Dream | ख़ाब -ए-सुल्ताना | translated by Dr. Tribhu Nath Dubey


II 

अब तक हम सिस्टर सारा के घर पहुँच चुके थे। यह दिल के आकार जैसे बाग़ में बना हुआ था। यह एक बंगला था जिसमें नालीदार लोहे की छत थी। यह हमारे किसी भी संपन्न मकानों से ज्यादा अच्छा और ठंडा था। उस घर की सार-संभाल और सजावट इतनी अच्छी थी कि मेरे लिए उसे बयान करना भी मुमकिन नहीं हो पा रहा है।

हम पास-पास ही बैठे हुए थे। वह बैठक से निकाल कर कढ़ाई का एक काम ले आई और उस पर एक नई डिज़ाइन बनाने लगी।

‘आपको सिलाई-कढ़ाई का काम आता है?’

‘हाँ: हमारे पास जनाने में इसके अलावा करने के लिए कुछ और होता ही नहीं है।’

‘लेकिन हम अपने जाननेवालों की कढ़ाईगीरी पर भरोसा नहीं कर सकते!’ वो हंसती हुई बोली ‘क्योंकि पुरुष के पास इतना धैर्य ही नहीं होता कि वो सुई के भीतर धागा भी डाल सके!’

‘क्या आपने ये सारा काम खुद किया है?’ तिपायों पर लगे विभिन्न मेजपोशों पर की गई कढ़ाई की तरफ इशारा करते हुए मैंने उससे पूछा।

‘हाँ।’

‘इतना सब करने का समय आपको कैसे मिल जाता है? आपको अपने ऑफिस का काम भी तो करना ही पड़ता है, है कि नहीं?’

‘हाँ। मैं पूरे दिन प्रयोगशाला में अटकी ही नहीं रहती हूँ। मैं अपना काम दो घंटे में ही पूरा कर लेती हूँ।’

‘दो घंटे में! कैसे कर लेती हो? हमारे यहाँ हाकिमों को, जैसे मजिस्ट्रेट को प्रतिदिन सात घंटे कार्यालय में काम करने होते हैं।’

‘मैंने कुछ लोगों को उनका काम करते देखा है। आपको क्या लगता है, वे सातों घंटे काम ही करते रहते हैं?’

‘निश्चित तौर पर! काम ही करते हैं!’

‘नहीं, प्यारी सुल्ताना! वे काम नहीं करते हैं। वे अपना समय धुंए में उड़ा देते हैं। कुछ तो अपने कार्यालय समय में दो या तीन चुरूट भी पीते हैं। वे काम के बारे में बात ज्यादा करते हैं, लकिन काम कम करते हैं। मान लो  एक चुरूट को पूरा सुलगने में यदि आधा घंटे का समय लगता है, और एक आदमी पूरे दिन में रोज एक दर्जन चुरूट पीता है; तो सोंचो ज़रा, वो केवल चुरूट पीने में ही हर दिन छह घंटे बर्बाद कर देता है।’ 

हमने कई तरह की बातें की, और ये जाना कि वहां किसी प्रकार की कोई महामारी नहीं थी, न ही मक्खी-मच्छर का कोई प्रकोप था जैसे हमारे यहाँ होता है। मुझे यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि इस नारीदेश में कभी-कभार हो जाने वाली दुर्घटना के सिवा अपनी भरी जवानी में शायद ही कोई मृत्यु का शिकार होता था। 

‘क्या आप हमारी रसोई देखना चाहेंगी?’ उसने पूछा।

‘बहुत ख़ुशी होगी,’ मैंने कहा और देखने आगे बढ़ गई। यक़ीनन पुरुषों को स्थान खाली करने के लिए कह दिया गया था जब मैं वहां जा रही थी। रसोईघर एक सुन्दर से शाक-सब्जियों के बगीचे में बना था। हर लता और टमाटर की पौध अपने आप में एक सजावट की तरह था। न मुझे कोई धुआं दिखाई दिया न ही रसोइघर में कोई चिमनी ही लगी थी – एक दम साफ़ और चमाचम; खिड़कियाँ बगीचे के फूलों से फब रहीं थीं। कोयले या आग का कोई नामोंनिशां ही नहीं था।

‘आप खाना पकाती कैसे हैं?’ मैंने जिज्ञासा की।

उस पाइप को, जिससे संघनित सौर रौशनी और ऊष्मा प्रवाहित होती थी, दिखाते हुए वह बोली ‘सौर उर्जा से।’ और तभी के तभी मुझे उस प्रक्रिया को समझाने के लिए उसने कुछ बनाया भी।

मैंने आश्चर्यपूर्वक पूछा, ‘आपने सौर ऊष्मा को प्राप्त करने और भंडारण का काम कैसे किया?’

‘तो फिर मुझे बात थोड़ी पहले से शुरू करनी पड़ेगी। तीस साल पहले, जब हमारी वर्तमान रानी, जो तब मात्र तेरह वर्ष कि थी, को राजगद्दी पर बैठना पड़ा। वे केवल नाम की ही रानी थीं और वास्तविक शासन प्रधानमंत्री ही चलाते थे।

‘हमारी भली रानी को विज्ञान में गहरी रूचि थी। उन्होंने एक फरमान जारी किया कि देश की सभी औरतों को शिक्षित होना चाहिए। इस तरह लड़कियों के लिए सरकार द्वारा कई स्कूल स्थापित किए गए और उन्हें अनुदान मिले। महिलाओं में शिक्षा का खूब विस्तार हुआ। बाल उमर में होने वाली शादियाँ भी रुक गईं। किसी भी लड़की को इक्कीस के उम्र से पहले शादी करने की इजाज़त नहीं थी। मैं तुम्हें यह बता दूँ कि इससे पहले हम भी कठोर पर्दे के भीतर रखी जाती थीं।‘

मैंने बीच में हँसते हुए ही टोका, ‘पासा कैसे पलट जाता है!’

उसने कहा, ‘लेकिन आदमी और औरतों में दूरी वैसी ही है। कुछ वर्षों में हमारे अलग विश्वविद्यालय थे जहाँ पुरुषों को दाखिला नहीं मिलता था।’

‘राजधानी में, जहाँ हमारी रानी रहती हैं, दो विश्वविद्यालय हैं। इन में से एक ने एक ऐसे विचित्र गुब्बारे का ईजाद किया जिसमें कई पाइप जोड़े गए। इस खास गुब्बारे द्वारा जिसे बादलों के ऊपर तैरता हुआ रखा जा सकता था, वातावरण से जितना चाहो पानी लिया जा सकता था। विश्वविद्यालय के लोगों  द्वारा लगातार पानी लेने का काम होता रहा जिससे बादलों का घिरना ही बंद हो गया और इस तरह बुद्धिमान प्राचार्या ने इससे बारिश और आंधी-तूफानों का आना ही बंद कर दिया।’

‘सच में! अब मैं समझी यहाँ कहीं कीचड़ क्यूँ नहीं है!’ मैं बोली। लेकिन मुझे ये समझ नहीं आया कि पाइपों के जरिये पानी एकत्र करना कैसे संभव था। उसने मुझे समझाया कि यह सब कैसे हो पाता है, लेकिन ये मेरी समझ के परे था, क्योंकि मेरी वैज्ञानिक समझ सीमित थी। फिर भी वह बताती रही, ‘जैसे ही दूसरे विश्वविद्यालय को इसका पता लगा, वे लोग ईर्ष्या से भर गए और उन्होंने कुछ और असाधारण करने की ठान ली। उन्होंने एक ऐसे उपकरण का आविष्कार किया जिससे जितना चाहो, सौर ऊष्मा इकट्ठी की जा सकती थी। और वे उस उर्जा को संरक्षित कर जरुरतमंदों को आवश्यक्तानुरूप वितरित करने लगे।

‘जहाँ औरतें वैज्ञानिक शोधों में लगी थीं, इस देश के पुरुष हमारी सैन्य-शक्ति को बढ़ाने में लगे हुए थे। जब उन्हें पता लगा कि महिला विश्वविद्यालयों ने वातावरण से पानी शोखने और सूर्य से गर्मीं लेने कि क्षमता हासिल कर ली है तो उन्होंने विश्वविद्यालय के लोगों का केवल मज़ाक ही बनाया और इस पूरे उपक्रम को “एक भावुक दुह्स्वप्न” करार दिया।’

‘आप लोगों की उपलब्धियाँ वास्तव में बहुत शानदार हैं! लेकिन ये बताइए कैसे आप सब ने अपने देश के पुरुषों को जनाने के भीतर रखने में कामयाबी हासिल की? क्या पहले उन्हें किसी फंदे में डाल कर पकड़ना पड़ा?’

‘न।’

यह तो संभव नहीं है कि वे अपना मुक्त जीवन और खुली हवा खुद ही आपको सौंप दें और स्वतः घर की चारदीवारी के भीतर कैद हो जाएँ । उन्हें अवश्य ही काबू में करना पड़ा होगा।’

‘हाँ, उन्हें काबू में तो करना ही पड़ा!’

‘किसने किया? मैं समझती हूँ, उन्हीं महिला सैनिकों ने?’

‘न, अस्त्र-शस्त्र से नहीं।

‘हाँ, ये हो नहीं सकता था। पुरुषों के शस्त्र महिलाओं से ज्यादा मजबूत होते हैं। फिर?’

‘बुद्धि द्वारा।’

‘लेकिन उनका मस्तिष्क भी औरतों की तुलना में ज्यादा बड़ा और भारी होता है। है कि नहीं?’

‘होता तो है, लेकिन उससे क्या? हाथी के पास तो आदमी से भी बड़ा और भारी मस्तिष्क होता है। फिर भी आदमी उस हाथी को जंजीरों में बांध लेता है और उनसे अपनी इच्छा के मुताबिक काम कराता है।’

‘सही कहा, लेकिन कृपया मुझे ये बताइये, ये सब कैसे संभव हो पाया। मैं ये जानने के लिए मरी जा रही हूँ!’

‘औरतों का दिमाग पुरुषों से कुछ तेज होता है। दस साल पहले सैन्य अधिकारियों ने हमारी वैज्ञानिक खोजों को जब “भावुक दुह्स्वप्न कहा” था, कुछ युवतियों ने उस टिप्पणी का जवाब देना चाह था। लेकिन दोनों ही प्राचार्यों ने उन्हें रोका और सलाह दी कि उत्तर शब्दों से नहीं, यदि मौका मिले तो अपने काम से दें। और उन्हें बहुत देर तक इसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ा।’

मैंने दिल से ताली बजाई, ‘अरे गज़ब! और अब गर्वीले सज्जनों ने खुद अपने बारे में भावुक सपने देखने शुरु कर दिए हैं।’

‘कुछ ही समय बाद कुछ लोग पड़ोसी देश से शरणार्थी के रूप में यहाँ आए। कुछ राजनैतिक अपराधों के कारण वे मुश्किल में थे। उस पड़ोसी देश के राजा ने, जो एक अच्छा शासन देने के बजाय अपनी शक्ति के बारे में ज्यादा चिंतित था, हमारी नरमदिल रानी से कहा कि उन भगोड़ों को उसके अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया जाये। हमारी रानी ने इसे अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह उनकी शरणागत की रक्षा करने की नीति के विरुद्ध था। इस अस्वीकृति के कारण पड़ोसी राजा ने हमारे देश के विरुद्ध युद्ध का ऐलान कर दिया।’

‘हमारे सैन्य अधिकारी झट तैयार हो गए और दुश्मन के प्रतिरोध के लिए बढ़े। परन्तु दुश्मन बहुत ताक़तवर था। हमारे सैनिक बेशक बहुत बहादुरी से लड़े। इसके बावजूद विदेशी आक्रान्ता की बढ़त हमारी तरफ होती ही जा रही थी।’

‘लगभग सभी पुरुष युद्ध में लग गए थे; यहाँ तक कि कोई सोलह साल का बच्चा भी घर पर नहीं बचा। अधिकांश योद्धा इस युद्ध में शहीद हो गए और जो कुछ बच गए थे वे पीछे की तरफ खदेड़ दिए गए और दुश्मन अब देश की राजधानी से बस पच्चीस मील की दूरी तक दस्तक दे चुके थे।

‘कुछ विद्वान महिलाओं की एक बैठक महल में बुलाई गयी कि देश को बचाने के क्या उपाय हो सकते हैं। कुछ ने सैनिकों की तरह लड़ने का प्रस्ताव रखा; कुछ ने इसका प्रतिकार किया कि औरतें बंदूक और तलवार से लड़ाई करने के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं और न ही वे किसी हथियार से युद्ध करने की आदी हैं। तीसरा समूह उन महिलाओं का था जिन्होंने शारीरिक रूप से अशक्त होने का अफ़सोस जताया।‘

‘रानी का कहना था, “यदि तुम शारीरिक शक्ति के आधार पर अपने देश की रक्षा नहीं कर सकते तो बुद्धि के बल पर करो।”

‘वहां थोड़ी देर के लिए तो सन्नाटा पसर गया। रानी ने तब कहा, “यदि इस देश की धरती और सम्मान को बचाया नहीं जा सकता तो इस अवस्था में मुझे अवश्य ही आत्महत्या कर लेनी चाहिए ।”

‘तब दूसरे विश्वविद्यालय (जिसने सौर ऊष्मा का संचय किया था) की प्राचार्या, जो इस मशविरे के दौरान अब तक शांत भाव से कुछ सोच रही थी, ने विचार रखा कि हम अब पुर्णतः हार चुके हैं और अब कोई आशा भी नहीं है। लेकिन एक योजना है जिसे वह उपयोग में लेना चाहेंगी और यह उनका पहला और अंतिम प्रयास होगा; यदि वह इसमें नाकाम होती हैं तो आत्महत्या के अतिरिक्त कोई और विकल्प शेष नहीं रहेगा। सब उपस्थित महिलाओं ने यह प्रण लिया कि किसी भी सूरत में दासता उनको स्वीकार्य नहीं होगी।’

‘रानी ने सबका हार्दिक आभार प्रकट किया, और उस विदुषी प्राचार्या को अपनी योजना के प्रयोग की अनुमति प्रदान की। उठते हुए प्राचार्या ने पुनः निवेदन किया, “इससे पहले कि हम सब बाहर जाएँ, पुरुषों को आवश्यक रूप से जनाने में प्रवेश कर जाना चाहिए। पर्दे की ख़ातिर मेरी ये प्रार्थना है।” महारानी ने अनुमति दी, “अवश्य।"

‘अगले दिन रानी ने सभी पुरुषों से आह्वान किया कि सम्मान और स्वतंत्रता की ख़ातिर जनाने में स्थान ग्रहण करें। घायल और थके हुए वे थे ही, इस आदेश को उन्होंने वरदान की तरह लिया। सभी सम्मान में झुके और जनाने में बिना कोई शब्द कहे हुए चले गए। वे आश्वस्त थे कि इस देश के लिए वैसे भी आशा की कोई उम्मीद नहीं है।

‘तब प्राचार्या अपने दो हजार विद्यार्थियों को लेकर युद्ध-भूमि की तरफ आगे बढ़ी और उन्होंने निर्देश दिया कि सूर्य की संघनित तमाम किरणों को दुश्मन की तरफ छोड़ दो।

‘गर्मी और धूप को सहना उनकी शक्ति के परे था। वे सब घबरा कर मैदान छोड़ गए और हैरानी में यह भी नहीं सोच पाए कि उस जलाती गर्मी की क्या तोड़ हो सकती है। भागते समय वे जो अपनी बंदूकें और असले छोड़ गए, उसे भी उसी सौर-ऊष्मा से जला कर राख कर दिया गया। उसके बाद इस देश पर किसी को आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई।’

‘और उसके बाद तुम्हारे देश के पुरुषों ने जनाने के बाहर आने की कोई कोशिश नहीं की?’

‘हाँ, वे स्वतंत्र होना चाहते थे। कुछ पुलिस आयुक्तों और जिला मजिस्ट्रेटों ने रानी तक यह सन्देश जरूर भेजा कि सैन्य अधिकारी अपनी विफलता के लिए अवश्य ही कारागार में रखे जाने के पात्र हैं; परन्तु वे लोग कभी भी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुए और इसलिए उनको सजा नहीं मिलनी चाहिए और उनको अपने काम पर पुनः लगा दिया जाए।

‘रानी ने उन्हें एक परिपत्र के द्वारा सूचना भिजवाई कि यदि उनकी सेवाओं की कोई ज़रुरत महसूस हुई तो ज़रूर बताया जायेगा, और तब तक वे जहाँ हैं वहीं पर रहें। अब जब उन्हें पर्दे की आदत पड़ गई है और अपनी पृथकता पर बड़बड़ाना भी बंद कर दिया है, हम इस व्यवस्था को जनाने की जगह मर्दाना कहते हैं।’



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