‘भारत में टिकटॉक पर प्रतिबंध और ‘उससे मेरे जीवन में उत्पन्न खालीपन’

 - पुष्पेश कुमार और देबोमितl मुखर्जी


Image sources: TikTok, Brute India


“यह मेरे जीवन में एक बड़ा खालीपन पैदा करेगा क्योंकि पहले मैं अपने समय का उपयोग कुछ रचनात्मक करने के लिए कर रही थी...मैं एक दिन में 5-6 वीडियो बनाया करती थी... कोई मंच आपको इतने व्यापक दर्शक नहीं प्रदान करता है... मैंने एक वर्ष पहले अपना पहला वीडियो, राजस्थानी मीणा गीत, अपलोड किया था जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया था। अपनी टिकटॉक लोकप्रियता का उपयोग करते हुए, मैंने यू ट्यूब पर अपना चैनल प्रारंभ किया, लेकिन शायद अब मुझे वैसी लोकप्रयता कभी न मिल पाए।”

अनिता मीणा, उकेरी, राजस्थान (श्रीवास्तव,2020 से उद्धरित)

“मैं और मेरी पत्नी एक सैलून चलाया करते थे और लॉकडाउन के दौरान, हमने टिकटॉक पर वीडियो बनाना आरंभ किया और जल्दी ही हम लोकप्रिय हो गए। जब पिछली रात को हमने प्रतिबंध के बारे में सुना, तो हम मायुस हो गए क्योंकि अब हमें एकदम शुरुआत से ही सबकुछ शुरु करना होगा...”

दिनेश पवार, जामड़े गांब, धुलिया, महाराष्ट्र (पूर्वोक्त)

“यह ग्रामीण भारत के हाशिए पर पड़े लोगो का व उन लोगो का मंच है जो धनी परिवारों से नहीं आते हैँ। मुझे आशा है कि हमारी सरकार और कंपनी के बीच इसका कुछ न कुछ समाधान निकल सकता है। टिकटॉक ने कभी भी हमें कुछ भुगतान नहे किया। लेकिन यह लोकप्रिया होने का एक मंच मात्र था, जोकि कैरियर बनाने में मदद कर सकता था।“

सनातन महतो, कुसमंतंद गांव, झारखण्ड (पूर्वोक्त)

“टिकटॉक हम जैसे हाशिए पर पड़े वर्ग के लिए आसान था और घर जैसा था। हम टिकटॉक पर घर की तरह महसूस करते थे। इंस्टाग्राम जैसे ऐप्स जटिल होते हैं। अन्य ऐप्स में कोई भी हमारी वैसी तारीफ नहीं कर सकता है जैसे कि टिकटॉक के उपयोगकर्ता करते थे। अगर टिकटॉक नहीं होता तो हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते की बड़े लोग हमारे बारे में लिखें।

प्रकाशचव्हाण, टिकटॉक उपयोगकर्ता जो आंशिक रूप मे दृष्टि बाधित है, जामडे, महाराष्ट्र (यादव2020 मे उद्धरित)

सुविधाओं से वंचित टिकटॉकर्स

भारत सरकार ने 29 जून 2020 को “राष्ट्रीय सुरक्षा“को ध्यान में रखते हुए चीनी कंपनियों द्वारा विकसित 59 ऐप पर प्रतिवंध लगाने की घोषणा की। भारत के इलेक्ट्रोनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने जिन ऐप्स पर प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए हैं, उनमें बाइटडांस का टिकटॉक भी शामिल है। यह निबंध जिन प्रश्नो के उत्तर खोजना चाहता है वे निम्नलिखित हैं

टिकटॉक कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन-वृतांत (रात भर में प्रसिद्धि, दृश्यता, लाखों ‘लाइक्स’  और फिर अचानक इनका अंत) पर इतिहास के इस छोटे से अंश (राजकीय फैसले) ने कैसा प्रभाव डालाॽ हम उन टिकटॉकर्स के समाजशास्त्र को कैसे समझें जो मुख्यतः एक ग्रमीण व सुविधा से वंचित भारत से आते हैं? शहरी मध्यम वर्ग के टिकटॉकर्स के वीडियो ग्रामीण दलित आदिवासी टिकटॉकर्स के वीडियो से कितने भिन्न है चाहे इन दोनों का नृत्य एक ही बॉलीवुड धुन पर ही क्यों न हॊॽ

मंच की पृष्ठभूमि, पहनावे की सूझबूझ, श्रंगार, शरीर व केशसज्जा और कभी –कभी आधुनिक बॉलीवुड गीतों और संवादों के चयन के सौंदर्यबोध में अंतर दिखाई पड़ता है। शहरी टिकटॉकर्स के वीडियो स्विमिंग पूल, महंगे बाजार और सुंदर ड्राइंग रूम या उच्च वर्ग के रिहायशी इलाकों की पृष्ठभूमि में फिल्माए जाते हैं। ब्रांडेड परिधान में सुसज्जित कलाकार व उनकी भाव-भंगिमाएं से वैश्विक बहुराष्ट्रीय व्यक्तित्व के साथ साथ देशी अंदाज का प्रतिरूप प्रस्तुत होता है (भास्करण2004)। उनकी द्विभाषी और बहुभाषी जुबानें बोलने और उन जुबानों में त्वरित अदल- बदल करने की क्षमता, टिकटॉक की 15 या 30 सेंकड के वीडियो की तीव्रता से मेल खाती दिखती है। उनमें से कुछ ने इसे टिकटॉक स्टारडम के लिए बनाया, जिससे कभी-कभी वे लाखों और यहां तक की करोड़ो कमाते थे।

इसके विपरित, मातहत (सबाल्टर्न) दलित आदिवासी युवा टिकटॉकर्स सामान्य कपड़ों में श्रंगार व ब्राड़ों के बिना दिखाई देते हैं। पृष्ठभूमि ग्रामीण झोपड़ियाँ और सूखे या चट्टानी खेतों की होती है। अपने शहरी अभिजात वर्ग के समकक्षों के विपरीत, आदीवासी टिकटॉकर्स अधिकांशतः अपनी क्षेत्रीय जुबान में बोलते हैं ओर कुछ अपने यू ट्यूब साक्षात्कार में हिंदी में बोलने का प्रयास करते दिखते हैं। अपने अभिजात शहरी साथियों के विपरीत, जो कि नए प्रचलित गीतो को चुनते हैं, वे नृत्य करने के लिए क्षेत्रीय गीतों या 1990 के दशक के बॉलीवुड के रोमांटिक गीतों का चयन करते हैं।

इस संदर्भ में, प्रतिबंध की वजह से सुविधाओं से वंचित टिकटॉकर्स की तहस-नहस हुए भावना लोक ‘मेरे जीवन में उत्पन्न खालीपन’ की क्या समाजशास्त्रीय व्याख्या की जानी चाहिएॽ

लोकप्रियता/सामाजिक प्रतिष्ठा या उत्पीड़क अनुरूपतावाद

एडोर्नो और होर्खाइमर ने पूंजीवाद के भीतर सांस्कृतिक उद्योग को उत्पीड़न और गैरबराबरी के ढाँचे को बदलने वाले परिवर्तनकारी उपकरण के रूप में देखने के बजाए उत्पीड़क अनुरूपतावाद के रूप में देखा (बर्नस्टीन 1991)। उनके लिए, सास्कृतिक उत्पादन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का एक एकीकृत घटक है जिसका लक्ष्य विचारधारात्मक भ्रम और सामाजिक नियंत्रण है (पूर्वोक्त)। टिकटॉक की परिघटना को समझने के लिए क्या यह सिद्धांत प्रासंगिक हैॽ

टिकटॉक, व्यापक रूप से लोकप्रिय सोशल मीडिया नेटवर्किंग और वीडियो सामग्री बनाने वाला एप है, जोकि बाइट डांस, नाम की एक चीनी बहुराष्ट्रीय इंटरनेट प्रौद्योगिकी कंपनी के मालिकाने में है, जो ब्रांडों को प्रोत्साहित करने वाले महत्वपूर्ण स्तंभो में से एक है(मोहंती 2019)। मूल कंपनी ने हाल ही में ब्रांडों के लिए वर्तमान और भविष्य के समाधान की पेशकश करनेवाला एक ब्रांड मंच टिकटॉक फॉर बिजनेस पेश किया है(।परेज़ 2020)। इस ऐप को 2016 में चीन में डॉयिन के रूप में शुरू किया गया था, जिसे बाद में 2017 में विश्वभर में जारी किया गया(इकबाल 2020)।  इसमें उपयोगकर्तोओं को संगीत और संवाद जैसे 15 सेकंड के छोटे छोटे वीडियो या फिल्टर बनाने के अनुमति दी गई (उमर और देक्यान2020)।

इन मातहत(सबाल्टर्न) टिकटॉकर्स के बालीवुड संगीत पर होंठ मिलाकर अभिनय और नृत्य करने और स्टार बनने की उम्मीद को कैसे देखा जाएॽ ऐसा लगता है कि ये गीत, नृत्य या चुलबुले अभिनय इन कलाकारों के शरीर पर लिखी मातहती (सबाल्टर्निटी) की छाप को छिपाने में सक्षम नहीं होते हैं। मातहत (सबाल्टर्न) ग्रामीण परिवेश की भौतिकता में उनके सादे-सहज फिल्माकंन शहरी अभिजातों को मनमोहक लग सकते हैं। इनमें से अनेक शहरी अभिजात ऐसे वीडियो को पसंद करते हैं और प्रोत्साहित भी करते हैं जो उन्हें रोमांचित करता है पर दलितों और आदीवासियों की सबाल्टर्निटी के इतिहास और कारणों की ओर सोचने को शायद मजबूर नहीं करता है। 15 व 30 सेकंड के ये टिकटॉक विडियो इन हाशिए पर पड़े लोगों के इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने के लिए शायद पर्याप्त नहीं हैं।

उत्तर उदारवादी भारत में राष्ट्रो-पारी मध्यमवर्म का बॉलीवुड नृत्य के प्रति बढ़ते जुनून के साथ साथ अभिजात्य नृत्य संस्थानें पैदा हुईं। कोरियोग्राफिक नृत्य अभिजात वर्ग के शादी ब्याह का अभिन्न अंग बन गया, जो अभिजात व कॉर्पोरेट मध्यम वर्ग के, आत्मविश्वास और संपत्ति के प्रदर्शित करने का अभिकरण हो गया है ( मॉरकॉम 2015)। शयामक डावर जैसे नृत्य उद्यमियों के उद्भव ने नृत्य को तनाव खत्म करने, तंदुरुस्ती और मौज-मस्ती के उपकरण के रुप में एक नया अर्थ प्रदान किया जो मध्यमवर्गीय जीवनशैली में समाहित होने लगी। अनेक आधुनिक व्यायामशालाओं (जिम) में ये बॉलीवुड संगीत वजन कम करने के व्यायाम के साथ सम्मिलित हो गए जिसे "बॉलीवुड वर्कआउट" कहा जाने लगा। यह नबउदारवाद के व्यक्तिवाद की संकल्पना के अनुरूप है (पूर्वोक्त)। "बॉलीवुड वर्कआउट" एक व्यक्ति  को स्वास्थ्य व तंदुरुस्ती की ओर उन्मुख करता है।

इसके विपरीत, यदि निम्न मध्यम वर्ग और गरीब दलितों व आदिवासी व्यक्तियों को सोनी और ज़ी टीवी पर डांस इंडिया डांस जैसे नृत्य प्रतियोगिताओं में यदाकदा प्रवेश मिलता रहा है जिससे मंच पर निर्णायक मंड़ल की भूमिका निभानेवाले मशहूर हस्तियों की क्षणिक करुणा उत्पन होती रही है! कुछ सांस्कृतिक उद्यमियों के रूप में ऐसे प्रतिभागियों की सामयिक सफलता, अगरकभी ऐसा होता भी है तो दलित आदिवासियोंकी शहरी गंदी बस्तियों और अलग-थलग पड़ी ग्रामीण झोपड़पट्टीयों के भीतर के दुखों और ढाँचागत असमानता के अनुभवों पर परदा नहीं ड़ाल सकती।

तब ये सवाल उठते हैं कि: क्या यह एक गैरबराबरी की दुनिया में एक अविचारित हिस्सेदारी थी? क्या यह अबतक अनुपलब्ध सोशल मीडिया के मंचों में स्थान पाने और स्टारडम की उम्मीद के लिए एक दावा था? क्या वे यह मानने के लिए बाध्य हैं कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है जहां एक असमान दुनिया में प्रतिस्पर्धा निर्विवाद मानदंड है? या, क्या यह बॉलीवुड संगीत का जादू है और इन हाशिए पर पड़े युवाओं के बीच लोकप्रियता और सार्वजनिक दृश्यता का प्रलोभन है जो उन्हें टिकटॉक मंच पर धकेलता है?

इंटरनेट के "शुद्र" के रूप में टिकट़ॉक? या, स्थान की गरिमा?

“टिकटॉकर्स डब्बड शुद्र ऑफ इन्टरनेट” नामक पत्रकारिता लेखन में, लेखिका ज्योति यादव (2020) प्रकाश डालती हैं कि ‘भारत का एक हिस्सा कैसे सोचता है कि टिकटॉक मुख्यतः निम्न जातियों के लिए है।’ कुछ उच्च जातियों और बेशक उच्च मध्यम वर्गो को यह वीडियो साझा करने वाला एप ‘ओछा’ ‘मूर्खतापूर्ण’ व निन्दनिय लगता है ( पूर्वोक्त)। यादव आगे एक ट्वीट का उल्लेख करती हैं, जो वायरल हुआ था और बाद में हटा दिया गया, जिसमें एक उपयोगकर्ता ने यू ट्यूब और इंस्टाग्राम को ब्राह्मण श्रेणी के तहत, ट्वीटर को क्षत्रिय, फेसबुक को वैश्य तथ टिकटॉक को शुद्र श्रेणी के तहत वर्गीकृत किया था ( पूर्वोक्त)।

लेख के अंतिम हिस्से में, यादव (2020) प्रश्न करतीं हैं- ‘लेकिन ऐसा क्यों है कि ये टिकटॉकर्स अपने आपको उपहास का पात्र बना रहे हैं’? वे उत्तर देतीं हैं— क्योंकि वे अपने फटे कपड़े, धूप से तप्त हुई त्वचा, कुपोषित शरीर, और सबसे महत्वपर्ण, अपनी  गरीबी पर शर्मिन्दा नहीं हैं  (पूर्वोक्त)। जाति-वर्ग के हाशिए पर होने व सांस्कृतिक पूंजी के अभाव के बावजूद, इन टिकटॉकर्स के दसियों लाख लाइक्स व लाखों प्रशंसक(फोलोअर्स) थे।  बड़े पैमाने पर टिकटॉक पर उनकी उपस्थिति सोशल मीडिया के मंच पर वीडियो निर्माण की सरलता के कारण है; इसमें किसी भी औपचारिक साक्षरता और विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। केवल स्मार्टफोन और इंटरनेट की आवश्यकता है। स्मार्टफोन खरीदना अब सामर्थ के भीतर हैं और जियो ने इंटरनेट की पहुँच को सस्ता कर दिया है!

महाराष्ट्र के धुले जिले के जमडे गांव में दिनेश पवार अपनी दो पत्नियों के साथ रहते है। इनके तीस लाख प्रशंसक(फोलोअर्स) हैं और वे पूरे महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हो गए हैं। मराठी मनोरंजन उद्योग से उन्हें बेहतर आय और हैसियत बनाने के प्रस्ताव मिल रहे हैं। वे महाराष्ट्र में पारधी समुदाय से संबंधित हैं (अपडेट इन मराठी, 2019), जो इस क्षेत्र में सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाला खानाबदोश समुदाय है । वे एक स्कूल ड्रॉपआउट है और एक सैलून चलाते हैं। यद्यपि जमड़े गांव के अधिकतर ग्रामीण अनपढ़ हैं, फिर भी यहाँ दस से अधिक जोड़े हैं जो टिकटॉकर्स बन गए हैं (यादव 2020)।  सनातन और उनकी बड़ी बहन सावित्री झारखंड के एक आदिवासी गाँव से हैं (श्रीवास्तव 2020), जिनके टिकटॉक पर 27 लाख प्रशंसक(फोलोअर्स) और 5 करोड 77लाख लाइक्स थे, लेकिन उन्हें खरीदारी साइट्स के लिए गिफ्ट वाउचर्स के अलावा कोई भुगतान नहीं मिला (पूर्वोक्त)।

सनातन ने कहा, “टिकटॉक” ने हमें कभी कुछ भुगतान नहीं किया, यह प्रसिद्ध होने का केवल एक मंच था जो कैरियर बनाने में मदद कर सकता था। यू ट्यूब के विपरीत- जहां कई लोगों ने हमारे साथ दुर्व्यवहार किया और टिप्पणी वाले भाग में हमारा मजाक उड़ाया- इस मंच के माध्यम से मैंने बहुत आत्मविश्वास प्राप्त किया है,” (पूर्वोक्त)।

संपन्न उपभोक्ताओं के लिए टिकटॉक के लाइक और फोलो ग्रामीण भारत की सादगी व मनमोहकता को ग्रहण करने का एक जरिया हो सकता है। इसके साथ ही यह मातहत (सबाल्टर्न) युवाओं के लिए,जोकि अपने समुदाय के किसी सदस्य को प्रोत्साहित करने के लिए लाइक्सफोलोइंग को बढ़ाने के अभियान चलाते हैं, ‘उम्मीद की किरण’ हो सकती  है।

टिकटॉक ने मंनोरंजन की दुनिया में करियर बनाना संभव किया। दिनेश पवार.जिनके समुदाय पर पीढ़ीयों से अपराधिकता का कंलक लगा हुआ था, उन्हें सम्मान का एहसास हो सकता है। इसी तरह ग्रामीण झारखंड से रोमांटिक बॉलीवुड गीतों पर नृत्य करने वाले भाई-बहन की जोड़ी सनातन और सावित्री के लिए टिकटॉक ने नई संभावनाओं के द्वार खोल दिए।

दिनेश पवार अपने एक यूट्यूब वीडियो में वर्णन करते हैं कि कैसे –लोग आपका नाम लेते हैं और आपको शर्मसार महसूस कराते हैं, लेकिन अगर आप मशहूर हो जाते हैं, तो वे आपके साथ जुड़ जाते हैं, वे आपका अनुसरण करते हैं।यह एक डिजिटल दुनिया है और हमें बदलती दुनिया के अनुकूल बदलना चाहिए”। इस स्थानीय लोकप्रियता से मूर्त लाभ प्राप्त हो सकता है। महाराष्ट्र के बारामती तहसील के एक गाँव से सूरज चौहान एक खानाबदोश समुदाय से हैं। वे एक कक्षा 8 पास टिकटोक स्टार हैं, जो मराठी में अपने मजाकिया वीडियो के लिए मशहूर हैं।उनकी लोकप्रियता ने स्थानीय अभिजात वर्ग को उनके लिए पक्का घर बनाने के लिए प्रेरित किया, लोगो ने उसके लिए धन इकट्ठा किया,जबकि स्थानीय प्लास्टर और ईंट बनाने वालों ने बिना मजदूरी के काम किया।

हालांकि, यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी कि हर टिकटॉकर  या उनकी एक बड़ी संख्या क्रिकेट खिलाड़ियों और सौंदर्य रानियों ( ब्यूटी क्वीन) की तरह ब्रांड एंबेसडर बन जाएंगे। यद्यपि ब्रांड प्रचार और विज्ञापन कुछ टिकटॉक सितारों को प्रसिद्धि और संपन्नता हासिल करने में सक्षम बनाते हैं, लेकिन यह गतिशीलता और सशक्तीकरण कुछ गिने-चुने व्यक्तियों तक ही सीमित है। उनकी इक्की दुक्की सफलता ढांचागत रूपांतरण का मार्ग नहीं प्रशस्त करेगी। यह कई असफल मातहत (सबाल्टर्न) टिकटॉकर्स के बीच निराशा उत्पन कर सकती है, जो साधनवहीन रह जाएंगे और ज्यादातर दलित आदिवासी टिकटॉकर्स इसी श्रेणी में आ सकते  हैं।

समाजशास्त्री गिड्डन्स दावा करते हैं कि, वैश्वीकरण ने संचार और ऑनलाइन तकनीकों के माध्यम से मुक्ति की उम्मीदें पैदा की है, (गिड्डन्स 2002) परंतु दूसरे समाजशास्त्रियों का मानना है कि इसी वैशवीकरण ने अलौकतांत्रिक उच्च कुलीन विदेशी अंतः क्षेत्र इलाकों, कैपूचीनो बार, और गंदी बस्तियाँ, सार्वजनिक स्थलों का सैन्यकरण, व जीर्ण-शीर्ण मौहल्ले (स्लम्स) को भी पैदा किया (लुईंडोव्स्की 2003)। इस वैश्विक असमानता का एक पक्ष का चित्रण बैंकिंग, वित्त और सूचना प्रौद्योगिकी जैसे सेक्टरों में सीमित संख्या में उच्च- स्तरीय रोजगार करता हैं,  जो खुद को बनाए रखने के लिए क्लर्कों, सफाई और रखरखाव करने वाले कर्मचारियों जैसे कम वेतन वाले, अनौपचारिक और अनियमित मजदूरों की विशाल सेना पर निर्भर हैं (सस्किया ससेन को लेवांडोव्स्की ने 2003 में उद्धृत किया)। मजदूरो के ऐसे समूहों की आपूर्ति उन सामाजिक-आर्थिक स्तर के निचले तल से और नस्लीय/ जातीय समहू से होती है जिनके सदस्य मातहत (सबाल्टर्न) टिकटॉकर्स हैं।

और यहीं टिकटॉक जैसे ऑनलाइन स्थानों के जरिए ब्रांड-बाजार की मध्यवर्ती स्वतंत्रता की सीमाएं उजागर होती है। यू ट्यूब साक्षात्कार के माध्यम से उभरने वाले उनके सामुदायिक परिवेश के दृशय उनके दारूण जीवन निर्वाह को दर्शाते हैं। टिकटॉक वीडियों में केमरे के घुमने के साथ साथ परिवेश की दुर्दशा और गरीबी बॉलीवुड गीतों की रोमांस और मस्ती को  बीच बीच में तोड़ती है।

एडोर्नो के तर्क के अनुसार बाद के पूंजीवाद में सांस्कृतिक उद्योग (कल्चर इंडस्ट्री) पूरी तरह बाजार के तर्क और विनिमय मूल्य की मांग से परिभाषित होता है ।  इस तर्क  के माध्यम से  हम ब्रांड विज्ञापन उन्मुख टिकटॉक मंच पर ऐसे मातहत (सबाल्टर्न) की मौजूदगी को समझ सकते हैं।

एडोर्नों ने लिखा की पूंजीवाद थोड़ा बहुत आलोचना और वैकल्पिक विचारों को जगह देता है परंतु ढ़ाँचागत और मौलिक परिवर्तन की बात किए बगैर। यहां सभी को कुछ न कुछ मिलता है, कोई भी छूटता नहीं है; फिर भी विभेद पर जोर दिया जाता है और उसे बढ़ाया जाता है।

समाजशास्त्री मैत्रेयी चौधुरी (2014) ने लिंग, जन मीडिया, और लोकप्रिय संस्कृति की राजनीति पर अपने निबंध में बखूबी उदाहरण सहित दर्शाया है कि कैसे बाजार और संचार अनुसंधान रणनीतिक रूप से नारीवादी मुक्ति के प्रति प्रतिबद्धता के बिना उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए 'नारीवाद’ और ‘सांस्कृतिक अभिमान' ,जो परस्पर विरोधी संकल्पनांए हैं, को साथ मिलाकर विज्ञापन बनाते हैं। 21वीं सदी में दलित मुक्ति के संदर्भ में, गोपाल गुरु (2000), दलितों से वैश्वीकरण / निजीकरण वाले भारत में तीव्रता से बढ़ती ढ़ाचागत असमानता के विरोध में व्यक्तिवाद की जगह दलित सामूहिक  आत्म को स्थापित करने का आह्वान करते हैं। मातहत (सबाल्टर्न) टिकटॉकर्स की असमंजस भरी मनोदशा कोई संयोग नहीं है। उनकी चिंतनशक्ति को टिकटॉक जैसे सांस्कृतिक ऑनलाइन मंच (प्लेटफार्म) उन्हें उनकी  और उनके समाज की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों से थोड़ा दूर कर देते हैं। ऐसे में इस बात पर कैसे यकिन किया जा सकता है कि यह प्रक्रिया जनवाद के नए अध्याय लिखेगी और दलित-मातहतों (सबाल्टर्न) के जीवन का उद्धार होगा?

स्रोतः (रेफरेनशेस)

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पुष्पेश कुमार, हैदराबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। देबोमिता मुखर्जी समाजशास्त्र विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय में शोध सहायक हैं।


This article was earlier published in English in our blog. You can find the English version here.


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