-Maitrayee Chaudhuri
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सत्य से परे इस दुनिया
में,'तथ्य' कितने मायने रखते हैं ?
तेजी से विकसित होती सूचना और संचार की तकनीकों ने अब एक अलग ही दुनिया को
जन्म दिया है; व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम ये सभी तकनीकें अपने ही तरीके से
सूचनाओं का निर्माण और प्रवाह तय करती है।
इन्होंने भाषा के बीच की सीमाओं को तोड़ दिया है, तुरंत जोड़ने और संवाद करने की प्रक्रिया को संभव बना दिया
है। पहले से कहीं अधिक लोग सार्वजनिक बहसों में भाग लेते हैं। इससे लोगों के बीच
समझ और भाईचारे का विस्तार तथा लोकतंत्र को गहरा
होना चाहिए था । हालांकि कहानी अलग तरह से सामने आई है।
इसने आपसी समझ को बढ़ाने के बजाय अभूतपूर्व चुनौतियों को जन्म दिया है । 2017 के अंतिम महीने में एक उबर ड्राइवर के साथ हुई
बातचीत का एक अंश जो "तुरंत पहुंच और असमान ज्ञान" द्वारा परिभाषित एक संदर्भ में हुए एक संवाद की असंभवता को पकड़ता है । जैसे
ही मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में, जहां मैं पढ़ाती हूं, कार के अंदर बैठी,
ड्राइवर ने पहले तो इस बात की पुष्टि करनी चाही
कि मैं एक प्रोफेसर हूँ और फिर मुझसे यह पूछा कि क्या मुझे पता है देश के पहले
प्रधानमंत्री कौन थे? मैंने तुरंत जवाब दिया,
"नेहरू"। मेरे जवाब की पुष्टि करते हुए, उसने कहा - "गलत!", जैसे टीवी क्विज़ के
प्रश्नकर्ता, जिनके लिए वो और मैं
दोनों ही दर्शक थे। उसने जारी रखते हुए कहा कि तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी ने यह
झूठा प्रचार किया था, लेकिन यह अब और ज्यादा
टिक नहीं सकता, क्योंकि गूगल अब लोगों को
सीधे सच्चाई दिखा देता है । उसने अपनी बात जारी रखते हुए बताया कि वास्तव में
सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री थे। उसी "ज्ञान" के दूसरे अंश में ये भी बताया कि, कांग्रेस पार्टी के गांधी ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के संस्थापक भगत सिंह को मरवाया था। इन शुरुआती चकित कर देने वाली बातों को
सुनने के बाद, मैंने उसे अपनी बात
समझाने की कोशिश की। जब मैं उसे इंटरनेट पर डेटा अपलोड करने के तरीके के बारे में
बताने के लिए संघर्ष कर रही थी, तब मैं खुद को असहाय भी
महसूस कर रही थी। उसने निश्चिंतता के शांत भाव के साथ मेरी उद्विग्न प्रतिक्रिया
देखी और बोलना जारी रखते हुए ये बताया कि वो कैसे कंप्यूटर से ये सारे ज्ञान नियमित
रूप से प्राप्त करता है।
ऐसा नहीं है कि हमारे मूल दावों में भिन्नता थी। जिस आधार पर उसने इन सारी
बातों का दावा किया, उन आधारों में ही मूल
मतभेद था। उसके लिए गूगल द्वारा दिया गया ज्ञान निरपेक्ष और अंतिम था। इसमें
विश्वसनीयता और निपुणता दोनों थी। जेएनयू के प्रोफेसर के रूप में इस नए सामाजिक
क्रम में मेरा कोई वैध दर्जा नहीं था। मैं
जो बोलती वह असत्य माना जाता। हम एक ही विचार सीमा का हिस्सा नहीं थे। एक पल के
लिए मुझे आश्चर्य हुआ, कि क्या होता अगर मैं
उससे सहमत होती। क्या तब मेरी बातों को "सत्य" के रूप में देखा जाता? और फिर एक प्रोफेसर के
रूप में मेरा अधिकार तुरंत फिर से स्थापित हो जाता? संभवतः "हां"। तब हम “एक ही पक्ष” होते। यह वो स्रोत होता जहां से जानकारी एकत्र
की गई थी या फिर उस "पक्ष" से सम्बंधित होता,
जो एक "तथ्य" की वैधता का फैसला करता है, लेकिन वह प्रक्रिया नहीं जिसके द्वारा इसे
स्थापित किया गया था।
इस अनुभव ने मुझे 'अनुभूति द्वारा ज्ञान'
( व्यावहारिक ज्ञान) और 'वास्तविक ज्ञान' के बीच सामाजिक विज्ञानों में एक मूलभूत अंतर
पर वापस लौटने के लिए प्रेरित किया। पहले (अनुभूति द्वारा ज्ञान) में किसी घटना के साथ प्रत्यक्ष परिचय होना
शामिल है, जिसे हम 'अनुभव' कहते हैं; वही दूसरे में संरचनाओं
के कामकाज को ध्यान में रखना शामिल है,
अमूर्त संयोजनों (जैसे कि पूंजीवाद, राज्य, पितृसत्ता) के 'समान' होने का ये अर्थ नहीं कि वो सीधे अनुभव किए गए हैं।
ये बहुत पहले की बात नहीं है जब व्यावहारिक ज्ञान का अर्थ था, वह ज्ञान जिसे हम परिवार और आस पास रहने वाले
लोगों को देखकर और सुनकर एकत्र करते हैं। ये कहानी मीडिया के होने की वजह से
दुनिया में कहीं अधिक जटिल हो गयी है। उबर चालक ने ये 'ज्ञान' किसी भी परिजन से नहीं
लिया था। उसने अपनी लोकतांत्रिक स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए "स्वतंत्र इच्छा" से गूगल का उपयोग किया था और भगत सिंह के बारे में "सत्य" की "खोज" की थी।
समस्या यह है कि जब उसके पास ऐसे 'तथ्यों' तक पहुंच है, तो उसके पास उन स्रोतों तक कोई पहुंच नहीं हो
सकती जो उन 'तथ्यों' का उत्पादन करते हैं; या एक ऐसी समझ जो उसे ये बताये कि एल्गोरिदम उसे उन्ही
तथ्यों को उपलब्ध करवाएगी जो वह चाह रहा है। इसके विपरीत एक समाजशास्त्रीय समझ "परिचित ज्ञान" की तुलना में कही अधिक जटिल होती है। इसमें
स्थितियों और अक्सर-जटिल प्रक्रियाओं की एक आनुभविक रूप से पुष्टि
की समझ शामिल है, जिसमें कई बार लोग स्पष्ट
जागरूकता के अभाव में समझ नहीं पाते कि उनके आस पास क्या चल रहा है। उदाहरण के लिए,
यह हमें समझने में मदद करता है कि कैसे
उपनिवेशवाद, पूंजीवाद, वर्ग, जाति, बिग डेटा ने हमारे
व्यक्तिगत जीवन को संरचित किया है। इन प्रक्रियाओं की कार्यप्रणाली जटिल होती हैं
और नग्न आंखों को दिखाई नहीं देती। वे सिर्फ 'तथ्य' नहीं होती हैं।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एन सी ई आर टी) के लिए समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों के लेखन के दौरान
स्कूली छात्रों के साथ मेरी बातचीत, यह सुझाव देती है कि ’तथ्यों’ का ऐसा साधारण सा विचार शिक्षकों पर भी नहीं छोड़ा जाता है।
शिक्षक चाहते थे कि पाठ्यपुस्तकों में अधिक से अधिक 'तथ्य' हों, जैसे जनसंख्या वृद्धि, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं का विवरण, सामाजिक समस्याओं की सूची आदि।
मैं गलत हो सकती हूं, लेकिन मेरा अनुमान है कि
सूचना या मूर्त ’तथ्यों’ पर जोर देने के कुछ कारण
हैं। पहला, छात्र 'तथ्यों' को याद करके पुन: पेश कर सकते हैं, जिससे शिक्षक बिना किसी अस्पष्टता या
व्यक्तिपरकता की गुंजाइश के साथ प्रश्न निर्धारण एवं मूल्यांकन कर सकते हैं। दूसरा,
यहां तक कि हमारे उच्च शैक्षिक अभ्यास भी इस
विचार पर टिके हैं कि सामाजिक विज्ञान 'तथ्यों' का संकलन है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित किए जाने वाले
विभिन्न टेस्ट इस बात का प्रमाण हैं। हमारा सामाजिक विज्ञान प्रशिक्षण शायद ही कभी
उन प्रक्रियाओं में सलग्न रहा हो जिसके द्वारा यह सबूत-आधारित तथ्य (ऐतिहासिक या समकालीन) तक पहुंचे, विवादित और यहां तक कि संशोधित किए गए। तीसरा, "सैद्धांतिक" मुद्दों से निपटने के लिए किये गए कुछ प्रयासों
को "उच्च वर्ग" से जोड़कर देखा गया, जो अधिकांश छात्रों के
लिए अनुचित था। दूसरी ओर, तथ्यात्मक जानकारी को
उपयोगकर्ता के अनुकूल देखा जाता है ।
यह हमारी त्रासदी है कि हमारी उच्च शिक्षा ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि
शिक्षकों के पास राष्ट्रवादी गौरव के घिसे पिटे दावे जैसे कि "नारद मुनि गूगल की तरह थे" या "महाभारत के समय में
इंटरनेट था" या "मंत्रों में गति के
नियमों को संहिताबद्ध किया गया था" और साक्ष्य-आधारित निष्कर्षों के बीच अंतर करने के लिए शैक्षिक योग्यता नहीं
है। नेहरू को पटेल से बदला जा सकता है। नेहरू के नाम को विस्थापित करने या प्राचीन
भारत के चमत्कारों के नियमित आह्वान के लिए वैचारिक कारण स्पष्ट हैं।
हालाँकि, मेरी चिंता यहाँ तथ्यों
से नहीं है बल्कि उस सहजता से है जिसके साथ एक 'तथ्य' दूसरे 'तथ्य' की जगह लेता है, या एक 'इतिहास' दूसरे को प्रतिस्थापित करता है। यह दशकों से हमारी सामाजिक
विज्ञान शिक्षा के हो रहे खोखलेपन को दर्शाता है। उन्हें बस असंबंधित 'तथ्यों' के संकलन के रूप में स्थापित कर दिया गया है। ये आश्चर्य की
बात नहीं है कि छात्रों के लिए नयी चीज़ सीखना थकाने वाला कार्य है और शिक्षक भी
सामाजिक विज्ञान के छात्रों में ज्यादा
अंक लाने के लिए तथ्यों का सहारा लेते हैं। वे तथ्यों को आपस में जोड़ने वाले उन
विवरणों को छोड़ देते हैं जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं की समझ के बारे में जानकारी देते हैं।
इसलिए ये आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे मध्यम वर्ग (कुशल सॉफ्टवेयर और आईटी
पेशेवरों के रूप में) को इतिहास या सामाजिक विचारों का कोई ज्ञान
नहीं हैं, सोशल मीडिया पोस्ट से
इकट्ठा किए गए "तथ्यों" के अलावा, उस उबर चालक की तरह । हमारी भाषा की सीमा का
मतलब है हमारी दुनिया की सीमा। इस दुनिया में टेलीविज़न के प्रश्नोत्तरी
कार्यक्रमों और सामाजिक विज्ञानों के बीच अंतर करने के लिए कुछ भी नहीं है। इस "स्मार्ट" और तात्कालिक समय में, हम विवरणों को पेचीदा और अनावश्यक पाते हैं। बस प्रचलित शब्दों के अर्थ हैं। हम भावनात्मक रूप से संबंधित हैं। हम उत्तेजित
करने वाले भाषण पर उसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं जैसा उसको लिखने वाला हमसे उम्मीद
करता है। जिस तरह ये हम जानते हैं कि फिल्म में खलनायक कौन है, उसी तरह हमें ये पता होता हैं कि किसी सामाजिक
संघर्ष में खलनायक कौन है।
समाज में होने वाली घटनाएँ - चाहे ऐतिहासिक हों या समकालीन - को शायद ही कभी नायक-खलनायक के रूप में समझाया जा सके। उदाहरण के
लिए इतिहास की पाठ्यपुस्तकें हमें बताती हैं कि आस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ्रांज
फर्डिनेंड की हत्या ने प्रथम विश्व युद्ध को जन्म दिया। लेकिन ये इसका कारण नहीं
था। इसका कारण अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और उपनिवेशों पर शाही सत्ता की लड़ाई से
उपजा था। किसी घटना का एक निश्चित कारण पता लगाना सामाजिक विज्ञान के बुनियादी
सिद्धांतों का उल्लंघन है। लेकिन आज हम न केवल ’वर्तमान’ समय में रहते हैं, बल्कि एक ऐसे समय में जो
अत्यंत ध्रुवीकृत भी हैं। हम हमेशा से जानते थे कि खलनायक कौन है। यह हमेशा 'अन्य'/कोई और ही होता है।
हम तात्कालिक कारण के उस मामले को थोड़ा आगे बढ़ाएँ। प्रथम विश्व युद्ध में 15 मिलियन मारे गए और 20 मिलियन घायल हुए। 100 साल से ज्यादा समय
पहले दूर देश में लड़े गए वह युद्ध शायद ही हमें खास लगें, लेकिन एक लाख से अधिक भारतीय सैनिकों ने विदेशों में अपनी
सेवाएं दीं; 62,000 की मृत्यु हो गई और 67,000 अन्य घायल हो गए, इन सारे तथ्यों में संवेदनाओं के साथ प्रतिध्वनित होने की
संभावना है। जनसंपर्क उद्योग तुरंत इन तथ्यों को एक 'राष्ट्रवादी' गर्व से भरे संदेश में बदल देगा,
ताकि उसे प्रचलित 'गुड मॉर्निंग' और दिन के लिए
प्रेरणादायक उद्धरण के साथ अग्रेषित किया जा सके (जैसे "सिंड्रेला का होना इस बात का सबूत है कि जूते की एक नई जोड़ी "आपका जीवन" बदल सकती है)। इस तरह के ज्ञान की
गंगाए चौबीसो घंटे हमारे आस पास बह रही हैं। उनका कोई संदर्भ नहीं है। वे कोई
अंतर्दृष्टि प्रदान नहीं करते हैं। वे बस ‘ज्ञान’ को सजाने की सहायक सामग्री हैं, जो किसी पहचान को बढ़ाता है।
यह कोई सुझाव नहीं है कि हम सामाजिक
विज्ञान के सिद्धांतों को भी पढ़ायें जैसा कि विधि के दर्शन पर एक स्नातक वर्ग में
होता है। दरअसल ऐसा सोचा जा रहा है कि क्या हम समाज विज्ञान की अवधारणाओं जैसे कि
उपनिवेशवाद, लिंग, अनपेक्षित परिणाम पर चर्चा करने के लिए किसी
ठोस घटना का उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, घातक कोविड - 19
महामारी के बीच, सौतिक बिस्वास ने स्पेनिश
फ़्लू से सम्बंधित वृतांत के बारे में बताते हुए बीबीसी के लिए लिखा है, जो उस सामाजिक संदर्भ को चित्रित करके बताता है
कि वायरस कैसे फैलता है, और साथ ही उस इतिहास को
उजागर करने में मदद करता है, जो महिलाओं एवं हाशिए पर
रह रहे लोगों के साथ हुए सामजिक
दुर्व्यवहार से जुड़ा है।
"घातक फ्लू, जो जून 1918 में बॉम्बे (अब मुंबई) में जंग से लौटते सैनिकों के एक जहाज के बीच होता हुआ बंदरगाह के रास्ते आ गया
... स्वास्थ्य निरीक्षक जेएस टर्नर के अनुसार,
यह बीमारी रात में "एक चोर की तरह आई,
इसकी शुरुआत तेजी से हुई और बड़े प्रच्छन्न रूप में"। ... 'इन्फ्लूएंजा की वजह से 17 से 18 मिलियन भारतीय मारे गए, प्रथम विश्व युद्ध में
मरने वालों से भी अधिक। भारत को इसका काफी ज्यादा भार झेलना पड़ा - इसने अपने 6% लोगों को खो दिया।
पुरुषों की तुलना में महिलाएं इसका अधिक शिकार हुईं, क्योंकि वे शारीरिक रूप से कमज़ोर होने के साथ ही अस्वच्छ
और बंद आवासों में रहती थीं और बीमार लोगों की सेवा करती थीं"।
इस तरह के प्रयास पहले भी किए गए हैं। कई बहुत अच्छी किताबें लिखी गई हैं।
लेकिन कई कमियों की वजह से हम आज भी पीछे है।
पहली तो ये कि हमारे पास सामाजिक विज्ञानों में पुस्तकों को संसाधनों के
रूप में उपयोग करने का कोई प्रशिक्षण नहीं था। दूसरी, हमारे पास एक ऐसी मूल्यांकन प्रणाली है, जो सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों और शिक्षकों को
भी निष्फल कर देती है। तीसरी, निकट भविष्य में एक ऐसे राज्य के होने की शायद ही कोई संभावना है, जो इन सब में रुचि रखता हो। चौथी कमी ये कि
तुच्छता और घृणा के घातक संयोजन के साथ मिलाकर संवेदनाएं भी काफी हद तक बदल गयी
हैं और नए मीडिया द्वारा इसे कई गुना प्रवर्धित किया गया। इसलिए, एक ही रास्ता है कि नए मीडिया को अधिग्रहित
किया जाए और मानवतावाद और लोकतंत्र के लिए सामाजिक विज्ञानों, इसकी खुशियों और इसकी अनिवार्य भूमिका के बारे
में लोगों में जागरूकता पैदा की जाए ।
This article was originally published in English on Inter-actions (https://lilainteractions.in/). Republished here in Hindi with due permission.
Link to original https://lilainteractions.in/instant-access-unequal-knowledge-and-democracy-a-case-for-the-social-sciences/
Translation by: Vivek Vasuniya,
Centre for the Study of Regional Development (CSRD) and Dinesh Rajak, Centre for
the Study of Social Systems (CSSS), Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi
बहुत प्रासंगिक आलेख...ज्ञान के नवीन स्रोतों और अभिव्यक्ति के नए माध्यमों ने निश्चय ही सुविधाएं दी हैं और गंभीर चुनौतियां भी ले कर आया है...
ReplyDeleteअनुवाद में आपका वैचारिक प्रवाह सहज और सुरक्षित है...इसके लिएअनुवादक-द्वय को साधुवाद!
Very nice
ReplyDeleteIt's very relevant to present scenario.