COVID - 19 संकट और वर्ग की अवधारणा

अर्जुन सेनगुप्ता*

Source: Google, Reuters

अक्सर यह कहा जाता है कि सामाजिक संकटों के दौर  में सामाजिक विज्ञान की बहुत ज्यादा आवश्यकता महसूस की जाती है। जब कभी सामाजिक जीवन के स्थापित ढाँचे में अचानक बाधा जाती है या फिर जब हमारे सामाजिक रिश्ते जिन्हें  हम आम तौर पर सामान्य मान कर चलते हैं, गंभीर तनाव से भर जाते हैं या जब सुलझे हुए विचार हमारी आंखों के सामने आने वाले कठोर बदलावों को समझने में अपर्याप्त  लगने लगते हैं, तो यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य बन जाता है कि आखिर सामाजिक व्यवस्था कैसे कार्य करती है

COVID-19 संकट ने, जिस पैमाने और गहनता के साथ वर्तमान परिस्थितियों में जो परेशानियाँ उत्पन्न की हैं, निश्चित रूप से इसने एक उथल-पुथल भरे दौर को जन्म दिया है। दुनिया भर में, बीमारी और इसे रोकने के प्रयासों ने लोगों के जीवन पर कहर बरपाया है। संक्रमण और मृत्यु के आंकड़ों में होती बढ़ोतरी, बीमारी से जूझने के लिए बिना तैयारी वाली स्वास्थ्य सेवा प्रणाली, और सामान्य आर्थिक गतिविधियों के रुक जाने से  से दुनिया भर में विकट  अनिश्चितता और संकट का दौर शुरू हो गया है

वैश्विक महामारी ने असमानता के सवाल को सबके सामने लाकर रख दिया है। अर्थव्यवस्था के रुके पहिये ने अनगिनत आजीविकाओं को तबाह कर दिया है और गरीबों पर भारी असर डाला है। भारत में काफी विरोधाभासी तस्वीरें दिखाई दे रही हैं  जहाँ एक तरफ तो लाखों प्रवासी कामगार घर पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं  दूसरी तरफ संपन्न वर्ग अपने आरामदायक घरों में सुरक्षित है। इस भयावह असमानता का कोई कैसे अर्थ निकालेगा? ऐसी कौन सी समाजशास्त्रीय अवधारणाएँ हैं जो हमें ऐसी असमानता को समझने में मदद कर सकती हैं?

 हमें इन सवालों का जवाब शायद वर्ग की अवधारणा में मिल जाये। समाजशास्त्र के भीतर, वर्ग के प्रश्न को समझने के दो मुख्य सैद्धांतिक दृष्टिकोण हैं - एक वेबरियन, जो जर्मन समाजशास्त्री मैक्स वेबर के काम से जुड़ा हुआ है, और दूसरा मार्क्सवादी, जो 19 वीं शताब्दी में मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के  द्वारा शुरू किये गए राजनीति, दर्शन और सामाजिक सिद्धांत के विषय से संबन्धित है। इन दृष्टिकोणों की बुनियादी विशेषताओं को समझना उपयोगी हो सकता है।

वेबर के लिए,  वर्ग व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो बाजार में मिलने वाले समरूप संसाधनों, जिन्हें वे बाजार में नियंत्रित करते हैं, के आधार पर जीवन में समान अवसरों की उम्मीद कर सकते हैं। इन अवसर या "जीवन की संभावनाओं " का विस्तार आय और रहन- सहन के तरीके से लेकर व्यक्तिगत और भावनात्मक संतुष्टि के स्तर तक है। इन संसाधनों में भौतिक वस्तुओं, कौशल और शैक्षिक योग्यता का स्वामित्व शामिल है।[i]  उदाहरण के लिए, यदि आप एक कारखाने के मालिक हैं, तो आप श्रमिकों को किराये पर बेहतर उत्पादन करने के लिए रख सकते हैं जिसे बाद में आप बाजार में बेच सकते। इस तरह की बिक्री के माध्यम से आपने जो आय या लाभ प्राप्त किया है वह आपको एक निश्चित स्तर की संपन्नता और कल्याण का भरोसा देता । यह वो संपन्नता है, जो बाजार पर सामान बेचने की आपकी क्षमता पर आधारित है, जो बदले में कारखाने के आपके स्वामित्व पर आधारित थी, जो आपको पूंजीपति वर्ग का सदस्य बनाती है। लेकिन अगर आपके पास ऐसी कोई धन - दौलत  या संपत्ति नहीं है, जिसे आप किसी आय को सुरक्षित करने के लिए बेच सकते हैं, तो आप मजदूरी के बदले बाजार में अपने श्रम को बेचने के लिए मजबूर होंगे। एक मजदूर/ कर्मचारी के रूप में, आपकी आय, और फलस्वरूप आपके जीवन की गुणवत्ता सीमित होगी। यह निर्धनता  है, जो बाजार पर कुछ भी बेचने की आपकी अक्षमता पर आधारित है, जो आपको श्रमिक वर्ग का सदस्य बनाती है।  वेबरियन दृष्टिकोण में वर्ग की स्थिति बाजार पर निर्भर करती है। आप किस वर्ग से संबंधित हैं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किन संसाधनों के मालिक हैं और किन्हे बाजार में बेच सकते हैं।[ii]  

मौजूदा संकट के दौर में इस तरह की अवधारणा की प्रासंगिकता स्पष्ट है। दुनिया भर में, संसाधनों तक पहुँच  ने शारीरिक दूरी को बनाए रखने, सुरक्षात्मक मास्क, सैनिटाइज़र, और साबुन की खरीद, समय पर परीक्षण और उपचार प्राप्त करने, सामान्य स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छता सुविधाओं का लाभ उठाने की क्षमता को प्रभावित किया है। महामारी  के आर्थिक पतन के दौरान संसाधनों का प्रश्न केंद्रीय रहा है। उदाहरण के लिए भारत में मजदूर वर्ग के एक बड़े हिस्से के लिए लॉकडाउन ने भोजन जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को जुटाने की उनकी  क्षमता को गंभीर रूप से नुकसान  पहुंचाया है। जबकि अधिक संसाधनों वाले लोग लॉकडाउन अवधि के खत्म होने का  इंतजार करते रहे। प्रतिदिन काम करने वाले मजदूरों के लिए बिना काम के हर अतिरिक्त दिन जीवित रहने की चुनौती बन जाता है, जबकि अमीर अपनी गतिविधियों  में विविधता लाते हैं और काम के ऑनलाइन तरीकों को अपनाते है, अधिकांश श्रमिक वर्ग में इस तरह  के  बदलाव करने के लिए संसाधनों की कमी होती है।

 वेबर का यह दृष्टिकोण इन असमानताओं की पहचान करने और उनका वर्णन करने में उपयोगी तो है, लेकिन यह उन्हें समझा नहीं सकता है। ये दृष्टिकोण हमें बड़ी सटिकता से बताता है कि संसाधन मालिकों के पास जीवन के बेहतर अवसर हैं। लेकिन हमें यह नहीं समझाता है कि कुछ लोगों के पास संसाधन क्यों हैं और अन्य के पास क्यों नहीं है। यह हमें नहीं बताता कि गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों।

वर्ग का मार्क्सवादी दृष्टिकोण कुछ ऐसे ही सवालों के जवाब देने की कोशिश करता है। इस असमानता के स्रोत को बाजार विनिमय के क्षेत्र में तलाशने  के बजाय, यह उत्पादन के क्षेत्र में इसकी तलाश करता है। इस दृष्टिकोण में, किसी का वर्ग स्थान, सामाजिक रूप से सुनियोजित उत्पादन में निभाई जाने वाली उसकी भूमिका पर निर्भर करता है।[iii] एक वर्ग-विभाजित समाज सबसे बुनियादी स्तर पर, मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच बॅंटा होता है [iv] - यह एक ऐसा समाज होता है जहां एक समूह उत्पादन का आयोजन और संचालन करता है, जबकि दूसरा समूह उत्पादन के लिए  शारीरिक श्रम उपलब्ध कराता है। जो वर्ग उत्पादन का संचालन करता है उन्हें शारीरिक श्रम करने वाले वर्ग (श्रमिक/मज़दूर वर्ग ) से अपने निर्वाह के साधन निकालने की आवश्यकता होगी, क्योंकि यह अपने आप में भौतिक रूप से कुछ भी उत्पादन नहीं करता है,। बेशक यह केवल तभी संभव होगा, जब भौतिक उत्पादकों का वर्ग अर्थात श्रमजीवी वर्ग अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक चीजों से अधिक वस्तुओं का उत्पादन करता हो - यानी जहां वो अधिशेष का उत्पादन करता है। उत्पादकों (श्रमिकों) से गैर-उत्पादकों के वर्ग द्वारा इस अतिरिक्त मूल्य/उत्पाद की निकासी को मार्क्सवादी सिद्धांत में शोषण कहा जाता है  और  इसलिए, वर्गों के अस्तित्व की कुंजी एक वर्ग द्वारा दूसरे के शोषण में निहित है

निजी संपत्ति या स्वामित्व का सार एक वर्ग  द्वारा दूसरे  वर्ग के श्रम को हड़पने में ही निहित है ऐतिहासिक रूप से निजी संपत्ति असल में अतिरिक्त उत्पाद की निकासी ही के विभिन्न विकासशील तरीको में से एक हैं। गुलाम समाजों में, जहां दास-धारक उसका मालिक होता है, तथा उसके द्वारा की गयी मेहनत के प्रतिफल का भी स्वामी होता है वही सामंती समाजों में, जहां सामंत परंपरागत स्वीकृति के माध्यम से कृषि भूमि पर नियंत्रण रखता है, अधिशेष को वह अनिवार्य किराए, श्रम शुल्क, आदि के रूप में किसान से वसूलता  है पूंजीवाद के तहत, जहां स्वामित्व मुख्यतः वस्तुओं का होता  है (यानी ऐसी चीजें जो खरीदी और बाजार में बेची गई), अधिशेष की निकासी वस्तुओं के आदान-प्रदान का रूप लेती है: श्रमिक अपनी मेहनत पूंजीपति को बेचता है और बदले में मजदूरी प्राप्त करता है। मजदूरी के बदले आवश्यक वस्तुओं की खरीद करता है। आमतौर पर, एक मजदूर द्वारा निर्मित वस्तुओं का कुल मूल्य उसे मिलने वाली मजदूरी की तुलना में बहुत अधिक होता है यानी कि उसके द्वारा ख़रीदी जाने वाली वस्तुओं के मूल्य से बहुत अधिक होता है। यह अंतर उस श्रमिक द्वारा बनाए गए उत्पाद के मूल्य और उसके द्वारा प्राप्त किए गए वेतन के मूल्य के बीच है [v]  यही अधिशेष है जो पूंजीपति के खाते  में जाता है  पूँजीपति द्वारा जेब में लिए गए इस अधिशेष का एक बड़ा हिस्सा लाभ है।

इसलिए, मार्क्सवादी दृष्टिकोण में लाभ का स्रोत, श्रमिक का शोषण है। इस प्रकार, पूंजीवादी और श्रमिक के बीच संबंध केवल एक विपरीत नहीं बल्कि एक विरोधाभास भी है। पूँजीपति का रहन - सहन का स्तर उस अधिशेष के आकार पर निर्भर करता  है जिसे वह श्रमिक से निकाल सकता है अर्थात एक की सम्पन्नता दूसरे की निर्धनता से जुडी हुई  है।

अन्तर्निहित संघर्षों  वाली वर्ग की ये अवधारणा COVID -19 को समझने और इससे निपटने में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। दुनिया  भर की अर्थव्यवस्थाओं में फैली मंदी और लाखों नौकरियों के खत्म होने की होने के साथ, आर्थिक पुनरुत्थान विश्व भर की सरकारों के बीच एक केंद्रीय एजेंडा बन चुका है। हालाँकि, समस्या यह है कि ज्यादातर देशों में कारखानों को फिर से शुरू करने का मतलब है पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर उत्पादन को फिर से शुरू करना। पूंजीपति उत्पादन तभी करेंगे जब वे मुनाफा कमाने की स्थिति में हो। लाभ अधिशेष के निकासी पर, शोषण पर निर्भर करता है। 

उदाहरण के लिए, भारत में मौजूदा श्रम सुरक्षा को कमज़ोर किये जाने को आर्थिक नवीनीकरण  रूप में देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात की राज्य सरकारों ने निवेश आकर्षित करने के लिए बुनियादी श्रम कानूनों को निलंबित करते हुए अध्यादेश पारित किया है।[vi] यह तीन बुनियादी कारणों से आत्मघाती साबित हो सकता है।  सबसे पहले, श्रम संरक्षण कानून को हटाने से शोषण और बढ़ जाएगा तथा श्रमिकों की  आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो जाएगी जो पहले से ही बंद अर्थव्यवस्था के प्रभाव से पीड़ित है। इससे अर्थव्यवस्था में मांग के स्तर में और कमी आएगी जिससे निश्चित तौर पर मंदी को बढ़ावा मिलेगा। दूसरा, बढ़ता शोषण सुरक्षा और आजीविका की तलाश में श्रमिकों/मज़दूरों को गांवों में वापस जाने के लिए  मजबूर करेगा। तीसरा, शोषण का उच्च स्तर पहले से ही कमजोर सुरक्षा व्यवस्था को और कमजोर कर देगा जो गरीबों में बीमारी के खिलाफ लड़ने के लिए पहले से ही अपने न्यूनतम स्तर  पर है

कई सामान्य बातें हैं  जो ये बताती है कि पूंजीवाद संकटों से निपटने में बाधाएं खड़ी करता है। चूँकि पूँजीवाद के तहत उत्पादन पूँजीपतियों की ज़रूरतों के अधीन होता है, जिससे सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने और सामूहिक समस्याओं को हल करने के लिए सामाजिक रूप से समन्वित कार्रवाई मुश्किल हो जाती है। COVID-19 जैसी महामारी का मुकाबला करने के लिए किसी समाज को, अपने संसाधनों की एक व्यापक, समन्वित और नियोजित गतिशीलता - इसकी उत्पादक क्षमता, वैज्ञानिक और तकनीकी जानकारी, प्राकृतिक संसाधन, आदि - की आवश्यकता होगी। अधिकांश उन्नत पूंजीवादी देशों  में इस तरह के साधन जुटाना मुश्किल और अपर्याप्त साबित हुआ है।

उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने उन्नत चिकित्सा विज्ञान और तकनीकी के बावजूद, मास्क, सैनिटाइटर, सुरक्षात्मक गाउन और परीक्षण किट जैसे बुनियादी उपकरणों के उत्पादन में काफी संघर्ष किया है[vii](बक्सी, 2020) अमेरिका में आज COVID -19 मामलों की संख्या सबसे अधिक है।[viii] ((कोविड - 19) डेशबोर्ड, 2020) सामूहिक नियोजन के खिलाफ पूंजीवाद के प्रतिरोध को कुछ सबसे बड़े अमेरिकी निगमों के व्यवहार में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, टेस्ला आधिकारिक सार्वजनिक स्वास्थ्य आदेशों का खुलेआम उल्लंघन कर रहा है और अपने कारखानों  को फिर से शुरू कर रहा है। साथ ही, यह अपने कार्यकर्ताओं/कर्मचारियों को फिर से काम पर लाने के लिए धमका रहा है।[ix]  महामारी से काफी लाभ कमाने वाली अमेरिकी कंपनी अमेजन ने अपने कई गोदामों में  COVID-19 हॉटस्पॉट बनने के बावजूद सुरक्षा उपायों को अपनाने से मना कर दिया है। इसने लक्षणों के बावजूद अपने कर्मचारियों को काम पर लौटने के लिए बाध्य करते हुए उन्हें बीमारी के दौरान छुट्टी देने से मना किया है।[x]

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि इस तरह सार्वजनिक स्वास्थ्य के निहितार्थ कॉरपोरेट हठवादिता के विनाशकारी परिणामों की कल्पना करना कोई मुश्किल काम नहीं है। अमेरिका आज इस बात का सबसे ज्वलंत उदाहरण पेश करता है कि पूंजीवाद  में निहित विरोधाभास सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए बेड़ियों बन सकते हैं।  वर्ग की अवधारणा बहुत ही महत्वपूर्ण है और COVID - 19 संकट ने इसे उग्रता से हमारे सामने ला दिया हैं।

 


[i] वेबर, मैक्स। 1922, अर्थव्यस्था और समाज,  यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया

[ii] राइट, इ. आर.।  1979.  वर्ग संरचना एवं आय निर्धारण।  अकादमिक प्रेस

[iii] लेनिन। 1919. ए ग्रेट बिगिनिंग।  प्रोग्रेस पब्लिशर।  https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1919/jun/19.htm (1919)

 [iv] मार्क्स, कार्ल एट अल। 1968. द जर्मन आइडियोलॉजी।  प्रोग्रेस पब्लिशर

[v] मार्क्स, कार्ल। 1976. कैपिटल: ए क्रिटिक ऑफ़ पोलिटिकल इकोनॉमी। पेंगुइन बुक्स लिमिटेड

[vi] रॉयचौधरी, अनुमित्रा। 2020. लेबर राइट्स इन फ्री फॉल। द हिन्दू , 18 मई 2020

 [vii] बक्सी, संदीपन। 2020. महामारी और पूंजीवाद: एक्यूरेट आइडेंटिफिकेशन ऑफ़ कंट्राडिक्शन। इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली । 55 (18)

 [viii] डब्लू एच ओ कोरोनावायरस डिजीज (कोविड - 19) डेशबोर्ड। 2020   https://covid19.who.int/.

 [ix] राइच, रॉबर्ट।  2020. अमेरिकास कॉर्पोरेट एलीट मस्ट स्टॉप ट्रीटिंग कोरोना वायरस एस एन ऑब्स्टैकल टू प्रॉफिट।  द गॉर्डियन।   https://www.theguardian.com/commentisfree/2020/may/17/americas-corporate-elite-must-stop-treating-coronavirus-as-an-obstacle-to-profit (2020).

[x] फीदरस्टोन, लिज़ा। 2020 हाउ यू कैन सपोर्ट अमेज़न वर्कर्स ड्यूरिंग कोविड - 19. जेकोबीन। https://jacobinmag.com/2020/04/amazon-warehouse-workers-coronavirus-pandemic-crisis/?__cf_chl_jschl_tk__=5f30a4bb29723dc90d26c2b5f2082a9bf7e59252-1591699326-0-ARPzacbwHbsc4Rpe0J_Qb-Z8NUsjtr9vHc2tSBhb-CTaIOUSCksHjXGtisTRgv_8ij2sGCO9ajc5ESJiuDQOKy1G3DRpKAV2 (2020).

                                                                     -----------------------

 *Arjun Sengupta teaches at the School of Livelihoods and Development in the Tata Institute of Social Sciences (TISS), Hyderabad.

(This piece has been translated by Dinesh Rajak, M. Phil Research Scholar at Centre for the Study of Social Systems (CSSS), Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi and Vivek Vasuniya, PhD Research Scholar at the Centre for the Study of Regional Development (CSRD), Jawaharlal Nehru Uniersity (JNU), New Delhi.)

Comments

  1. वर्ग के आधार पर बंटे समाज के लिए आपदाओं से जूझना किस तरह और भी मुश्किल हो जाता है, इसका बखूबी विश्लेषण किया गया है. सार्थक और उपयोगी लेख👍👌

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  2. A Thought provoking piece. Embedded in Sociological Theory. A good read.

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