विशेषाधिकार का समाजशास्त्र: ‘अभिजात अदृश्यता’ के विश्लेषणात्मक आयाम

- सूरज बेरी *
Illustration: Clockwise from top left- Forbes, Telegraph, Pintrest, Holidify.com

असमानता समकालीन समाजों की मूलभूत विशेषताओं में से एक है। समाजशास्त्री अपने अध्ययनों मे यह जानने के लिए प्रयासरत रहते है कि असमानताएँ कैसे पैदा होती हैं, किन तरीकों से निरंतर जारी रहती हैं और कैसे पुनरुत्पादित होती हैं। प्रमुख सामाजिक विचारक चार्ल्स टिली अपनी पुस्तक में ‘टिकाऊ असमानताओं’ के बारे में बात करते हैं जो कि एक सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषाधिकारों, लाभों और हानियों की प्रणाली को संदर्भित करते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं। आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति के आने और संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों के प्रसार के साथ, प्रदत असमानताएं सार्वजनिक उपहास को आमंत्रित करती हैं। वर्तमान समय में असमान पद अगर ’कड़ी मेहनत’, ‘योग्यता’, और ‘असाधारण प्रतिभा’ के आधार पर हासिल किया जाता है तो असमानता अधिक सहनीय लगती है। पर सवाल यह कि हम यहां तक कैसे पहुंचे? लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के क्रमिक समाजीकरण के साथ, 'खुलेपन', 'पहुंच' और सामाजिक गतिशीलता के विचारों ने लोकप्रियता हासिल की है। सामान्य रूप से सामाजिक विज्ञान और विशेष रूप से अर्थशास्त्र ने गरीबी के स्तरों को मापने के लिए पर्याप्त ध्यान और ऊर्जा केंद्रित की है। अनेकों अर्थशास्त्रियों ने गरीबों के रहने, व्यय क्षमता और व्यवहार पर शोध करने के लिए नोबल पुरस्कार जीता है, लेकिन शायद ही किसी ने अध्ययन किया है कि लोकतंत्र में भी अभिजात वर्ग कैसे बनते हैं और सक्रिय रहते हैं। यह आश्चर्यजनक बात है कि समकालीन समाजों में असमानता इतने व्यापक होने के बावजूद राजनीतिक और आर्थिक अभिजात वर्ग का सामाजिक अध्ययन गहन तौर पर नहीं किया गया है जबकि इसकी आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है । 

पिछले बीस-तीस वर्षों में हमने कॉर्पोरेट कुलीनों के पक्ष में आय, धन और संसाधनों की तीव्र झुकाव देखा है। हाल की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय संदर्भ में, शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी राष्ट्रीय धन का लगभग 70 प्रतिशत स्वामित्व रखती है। शीर्ष व कुलीन जाति समूहों के हाथों में बढ़ती धन एकाग्रता लोकप्रिय प्रवृत्ति बनी हुई है। नवउदारवादी पूंजीवाद की प्रक्रिया के साथ, अमीर और चरम गरीबों के बीच अंतराल बढ़ गया है। इस संदर्भ में, किसी भी शोधकर्ता को धन संचय और विशेषाधिकार के पुनरुत्पादन की प्रक्रियाओं पर विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन की अपेक्षा करनी ही चाहिए। फिर भी हमें इन चकाचौंध असमानताओं और शीर्ष पर निरंतर धन दौलत कि एकाग्रता के बारे में याद दिलाने के लिए थॉमस पिकेटी की आवश्यकता क्यों पड़ी। यह समझना जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ? सवाल यह भी है कि हम अभिजात वर्ग पर अकादमिक रुचि की क्रमिक गिरावट को कैसे समझते हैं? यहां तक ​​कि उन राजनीतिक और वैचारिक बहसों में, जो ’सत्तारूढ़ वर्ग’ को चुनौती और सवाल करते थे, समकालीन राजनीतिक परिदृश्य से ’ऐलीट/कुलीन वर्ग’ गायब हैं। 

एक मुख्य कारक जो सामाजिक विज्ञान चर्चा में कुलीनों की अदृश्यता की व्याख्या करता है, वह है लोकतंत्रों के प्रवचन एवं विचारधारा। लोकतंत्र ने हाशिए के सामाजिक समूहों के लिए सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र खोलने वाले और सत्ता का बहुलवादीकरण प्रक्रिया के प्रारंभ होने का संकेत दिया और इसलिए लोकतंत्र में कुलीन वर्ग के ढांचे और प्रकार्यों से ध्यान भटकाव हुआ। समाजशास्त्रियों ने हाल ही में लोकतंत्र व्यवस्था की आंतरिक असमनताओं पर तथा लोकतंत्र को कमजोर करती नवउदारवादी बाजार व्यवस्था पर शोध और सवाल पूछना शुरू कर दिया है। 

दूसरी बात यह है कि 1960 के दशक के दौरान जब सी डब्ल्यू मिल्स अमेरिकी सत्ता संभ्रांत लोगों पर शोध कर रहे थे, तो ‘कुलीन वर्ग’ की अवधारणा पारेटो और मोस्का के समय में फासीवाद’ के साथ अपने वैचारिक समरूपता होने के कारणों से, सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा विवादास्पद करार दिए जाने से उबर ही रही थी। विश्व युद्ध के बाद की अवधि में, सामाजिक वैज्ञानिकों ने यूरोपीय समाज में 'मध्यम वर्गों के उदय' पर ध्यान देते हुए मार्क्सवादियों के ‘वर्ग ध्रुवीकरण' की अवधारणा को अमान्य व असफल बताना शुरू किया। इसी दौरान सामाजिक शोधों ने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के राजनीतिक और आर्थिक निहितार्थों ’को चित्रित करने के लिए गरीबों की उर्ध्वगामी सामाजिक गतिशीलता’ को जानने और समझने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। 

तीसरा कारण यह रहा की, इन सामाजिक परिवर्तनों के मद्देनजर सामाजिक बहसों में ‘मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण’ की अनुभवजन्य आलोचना की शुरुवात होने लगी। अनेकों ऐसे शोध हुए जो ये साबित करने मे लगे रहे की श्रमिक वर्ग इंग्लैंड में और बाद में यूरोप में राजनीतिक रूप से कोई क्रांतिकारी वर्ग नहीं है बल्कि यह वर्ग स्वयं माध्यम वर्गीय जीवन जीने के लिए लालायित है । फील्ड आधारित शोध ने सामाजिक परिवर्तन व सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में शासक वर्ग और अभिजात वर्ग जैसी अवधारणाओ की वैधता को भी चुनौती दी। 

इन सभी सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक विकासों ने समाजशास्त्रीय जांच और अध्ययनों से कुलीनों को खिसकाने में योगदान दिया था। हाल के वर्षों में समाजशास्त्रियों ने कुलीन अध्ययनों को पुनर्जीवित किया है और समकालीन दुनिया (सैवज, 2015) में शक्ति और असमानता के तंत्र की जांच करने में पुनरुत्थान किया है। नवउदारवादी नीतियों के साथ बढ़ती निजीकरण की प्रक्रिया ने अभिजात वर्ग की प्रकृति और लोकतंत्र के लिए उनकी अरुचि और कल्याणकारी राज्यों के विचार पर सवाल उठाए हैं। आर्थिक कुलीनों के समालोचना के लिए सिकुड़ते स्थान का लक्षण तब स्पष्ट हो जाता है जब कोई भी शिक्षाविद अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों का मानचित्रण करने की कोशिश करता है और उन्हे 'वामपंथी' या 'माओवादी' करार दिया जाता है। 

वैश्विक उत्तरी समाजों के साथ-साथ जिस गति से भारत में भी सार्वजनिक क्षेत्र के कॉर्पोरेट अधिग्रहण के हाल ही के प्रयासों को अब 'कुलीनों का विद्रोह' कहकर पुकारा जा रहा है। समकालीन सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल व बदलाव, मेरिटोक्रेसी ’के विचारधारा को अस्वीकार करने का अवसर प्रदान करती है और गंभीर रूप से जांच करती है कि अभिजात किस तरह से अपने तंत्र और संसाधनों के एकाधिकार को छिपाते हैं, नागरिकों को शक्तिहीन बनाने के साथ लोकतंत्र को भी कमजोर करते हैं। ‘कड़ी मेहनत’ और ‘मेरिट’ के प्रवचनो के माध्यम से, अभिजात गरीबी और असमानता का दोष अंतत गरीबों और निम्न वर्गों पर ही मंढ देते हैं और स्वयं के विशेषाधिकारों को किसी भी तरह के लोकतांत्रिक सवालों और जवाबदेही से बचा ले जाते हैं। 

समाजशास्त्रीय कल्पना के लिए नैतिक शक्ति, हमारे दैनिक जीवन क्या है और जीवन कैसे होना चाहिए और साथ ही हमारे अनुभवजन्य अध्ययन हमें क्या बताते हैं, के बीच संबंध और विरोधाभास से आता है। फ्रेंच समाजशास्त्री पियरे बॉर्डियू के विचारों को जानते हुए, हम कह सकते हैं कि समाजशास्त्रीय कल्पना का कार्य हमेशा मानव स्वतंत्रता और गरिमा को बेहतर बनाने के लिए वर्चस्व के तंत्र, शक्ति के तंत्र और वैचारिक स्वरूप को उजागर करना रहा है। 

नवउदारवादी सुरक्षा राज्य के बढ़ते वर्चस्व के साथ, वास्तविक चुनौती यह समझने, जांचने और अनुभव करने की है कि समाजशास्त्र बढ़ती हुई सत्तावादी परिवर्तियों का जवाब कैसे देता है और अपने पक्षाघात से "समालोचना" को फिर से जीवित करता है। यह केवल विशेषाधिकार का समाजशास्त्र करने और असमानता के सरंचनाओं, यानि अभिजात व कुलीन वर्ग पर ध्यान केंद्रित करने के द्वारा हो सकता है, नाकी उन्हे सामाजिक शोध के दायरे से बाहर करके। 

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संदर्भ: 

अप्पादुरई, अर्जुन। 2020. ‘हम एलीट्स के विद्रोह को देख रहे हैं’, द वायर, 22 अप्रैल 2020। 

बोरडियू, पियरे। 1996. द स्टेट नोबेलिटी: पावर के क्षेत्र में एलीट स्कूल। कैम्ब्रिज: पॉलिटी प्रेस। 

पिकेटी, थॉमस। 2014. ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी में पूंजी। आर्थर गोल्डहामर द्वारा अनुवादित। कैम्ब्रिज: द बेलकनैप प्रेस ऑफ़ हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस। 

सैवज, माइक एट अल। 2015. 21 वीं सदी में सामाजिक वर्ग। पेलिकन बुक्स। 

टिली, चार्ल्स। 1998. टिकाऊ असमानता। बर्कले, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस। 
 
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*सूरज बेरी समाजशास्त्र विभाग, इंद्रप्रस्थ कॉलेज फॉर वुमन, दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। 

(This piece has previously been published in English in Doing Sociology on June 4, 2020)

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